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बुधवार, 30 मार्च 2016

Nag tibba trek (nag tibba and return)नाग टिब्बा-3


26jan2016, tuesday 
सुबह जल्दी ही आंख खुल गई,शायद सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे, बाहर किसी की भी बोलने की आवाज नही आ रही थी, इसलिए में टैंट के अंदर ही लेटा रहा, तकरीबन आधा घंटे बाद मैने टैंट छोड दिया, बाहर आया तो देखा, उजाला चारो ओर फैल चुका था, नरेंद्र, पंकज व जांगडा भाई भी ऊठ चुके थे, शायद सब एक दूसरे का ही बोलने का इंतजार कर रहे थे, नीरज के तापमान नापने वाले यंत्र  में देखा तो न्युनतम -5* सैल्सियस तक तापमान रात में नीचे गया था, बाहर हलचल सुनकर नीरज भी बाहर आ गया। कल रात किसी ने बाहर एक चाय के कप में पानी भर कर रख दिया था मेरी नजर उस पर पडी तो देखा की पानी पूरी तरह से जम गया था, लगभग एक इंची सतह ऊपर से पूरी तरह जम चुकी थी, इससे ही सर्दी का अंदाजा लगाया जा सकता था, बस अब की बार बर्फ नही पडी थी, खच्चर वाले ने बताया की पिछले साल यहां पर भी बहुत बर्फ थी, जबकी देवता मन्दिर भी 2600 मीटर की ऊंचाई पर है, फिर भी अब की बार बर्फ यहां नही पडी। चाय पीने का मन कर रहा था, इसलिए आग के पास गए तो देखा अब भी हल्की हल्की आग सुलग रही है, हमने बची हुई सारी लकडी आग पर रख दी ओर देखते ही देखते आग पूरी तरह से जल पडी, आग की गरमी से हाथ पैरौ मे नई जान सी आ गई, पानी की कैन मे देखा तो पानी बहुत कम था ओर एक कैन तो पूरी तरह खाली हो गई है, मै और नरेंद्र व साथ में पंकज जी भी खाली कैन ऊठा कर नाग देवता के मन्दिर की तरफ चल पडे।

थोडी दूर पर यहां के देवता नाग देवता का मन्दिर बना है, मन्दिर के पास ही एक कुंआ(कुंड) सा बना है, जिसमे पानी था, नरेंद्र जी ने कैन को कुएं मे डाला तो देखा की पानी की ऊपरी सतह जमी हुई थी, मैने पास में ही पडी एक लकडी से वो बर्फ की सतह को तोड डाला ओर नरेंद्र ने कैन मे पानी भर लिया। इस कुंड के बारे में मुझे यह पता चला की यह पानी मन्दिर के अंदर से आता है, जब यह कुंड सुख जाता है तब यहां पर लोग नाग देवता की पूजा अर्चना करते है, उन्हे दुध चढाया जाता है, तरह तरह के रंग लगाए जाते है फिर जल चढाया जाता है, पहले पहले तो कुंड मे रंगीन पानी आता है फिर कुछ ही देर में साफ पानी आने लगता है ओर कुंड भर जाता है, ओर यह पानी पीने योग्य होता है। मेरे हिसाब से यह तो एक चमत्कार से कम नही है अगर ऐसे होता है तो।

पानी भरने के बाद हम तीनो वापिस अपने टैंट पर पहुचें, चाय बनाई गई, कल के कुछ पंराठे अभी बचे रखे थे ओर कुछ बिस्किट के पैकेट भी सबने चाय के साथ उन्ही का नाश्ता कर लिया, रात वाला कुत्ता अभी भी हमारे साथ था, उसको भी कुछ खाने को डाल दिया। चाय नाश्ता करने के बाद मुहं हाथ धौकर व सुबह के कुछ ओर जरूरी कामो को निपटा कर हम सब देवता से नाग टिब्बा चोटी की तरफ चलने के लिए तैयार थे। लकिन खच्चर वाला यही रहेगा क्योकी वह अपने खच्चर को यहाँ पर अकेला नही छोड सकता था, क्योकी जो दूसरे लोग थे जो रात को यहां पर रूके थे वो लोग सुबह ही यहां से चले गए थे। खच्चर वाले ने बताया की इस समय हम जंगल मे है, ओर जंगली जानवर भी इस जंगल में मौजूद है, फिलहाल आपको कोई जानवर दिखा ना हो पर पर हो सकता उसने आप को देख लिया हो, उसने बताया की जंगली जानवर वैसे इंसानो से दूर ही रहते है, लेकिन आमना सामना हो जाए तो कुछ कह नही सकते। इसलिये में यही रहुंगा आप लोग ऊपर हो आओ।

हम लोग उसे वही छोड कर नाग टिब्बा की तरफ चल पडे। देवता से तकरीबन दो किलोमीटर की दूरी पर नाग टिब्बा चोटी है, जिसे स्थानीय लोग झंडी भी कहते है, अब रास्ता पूरा तेज चढाई वाला चालू हो गया था, इसलिए जल्द ही सांसे फूलने लगी थी, कही कही बर्फ पडी हुई दिख रही थी, एक जगह हम रूक कर अपनी सांसो को सामान्य कर रहे थे, तो देखा तो बर्फ पर किसी जानवर के पंजो के निशान है, यह निशान हमारी हथेली जितने बडे थे पर अभी हाल मे काफी दिन से बर्फ नही पडी थी इसलिए यह पुराने व गर्मी के कारण कुछ धुंधले हो गए थे, वैसे इस जंगल में भालू और लेपर्ड(तेंदुआ) भी बहुत है। यहां से आगे बढते गए, यह जंगल चीड, बुरांश व अन्य ओर पेडो का है, हम जैसे लोग जो दिल्ली जैसे शहर में रहते है उन्हे ऐसे जगह को स्वर्ग से भी सुंदर लगती है, यह सुंदर व बडी शांत जगह थी। कुछ ही देर बाद हम एक ऐसी जगह पहुचें जहां पर काफी बर्फ पडी थी, इसको पार करने के बाद झंडी(नाग टिब्बा) दिख रही थी, यह इस क्षेत्र का उच्चतम जगह है, गढवाल हिमालय की निचली पहाडियो का उच्चतम जगह । यहां पर पहुचं कर अच्छा लग रहा था, हम लोग इस जगह पर आने के लिए ही तो अपने अपने घर से चले थे, यहां पर आकर एक मुकाम हासिल करने जैसी अनुभुति हो रही थी, बाकी सभी अभी बर्फ के पास ही खेल कुद रहे थे, मै अकेला ऊपर आ गया, कुछ देर वही बैठा रहा, ऊपर हवा बहुत तेज चल रही थी, हवा ठंडक का एहसास करा रही थी। नाग टिब्बा से हिमालय की बडी ऊंची ऊंची बर्फ से ढकी चोटियो का नजारा देखने को मिलता है, पर आज बहुत बादल होने के कारण यह नजारा हमे शायद ही दिखे, नाग टिब्बा से दूसरी तरफ नीचे गया तो यहां पर भी काफी बर्फ पडी थी ओर बहुत से जानवरो के पैरों के निशान बर्फ पर लगे थे, थोडी देर बाद पंकज जी भी ऊपर आ गए, वो भी इस जगह की खूबसूरती की तारिफ कर रहे थे, थोडी देर बाद नीरज मुझे आवाज देने लगा, फिर हम सबने एक फोटो नाग टिब्बा पर एक साथ खिंचवाया। मै बाद मे बर्फ पर फिसलता हुआ नीचे आया, बहुत मजा आया यहां आकर।

तकरीबन एक घंटे से ऊपर हो चुका था हमे ऊपर आए हुए पर किसी का मन ही नही कर रहा था नीचे जाने को, लेकिन हमे आज ही लौटना था ओर पंकज जी की रात को हरिद्वार से ट्रैन भी थी इसलिए हम यहां से चल कर सीधे अपने टैंट पर ही रूके, सारा तामझाम पैक किया ओर खच्चर पर रखवा दिया। ओर चल पडे नीचे गाडी की तरफ। पहाड पर नीचे उतरना भी खतरनाक होता है, इसलिए सावधानी से ही उतरना चाहिए, कही कही शोर्ट कट भी मार कर हम उतर रहे थे। एक जगह नीरज व अन्य ने एक छोटा व तेज ढलान वाला रास्ता पकड लिया। मै ओर जांगडा व पकंज जी एक मैन कच्चे रास्ते पर ही चलते रहे, आगे जाकर हम सब उस छोटे बुग्याल पर फिर मिल गए। जहां पर हमने कल परांठे खाये थे, यहां पर बैठ कर पानी पीया, कुछ खाने को था ही नही इसलिए संजय कौशिक जी के द्वारा दी गई मुंगफली खाई।

कुछ देर बाद यहां से चल पडे, मै, जांगडा व पंकज जी साथ साथ व सबसे पीछे ही चल रहे थे, एक जंगह पंकज जी फिसल गए, पैर मे हल्की सी खरौंच लग गई, एक जगह मेरा पैर रास्ते पर बिखरे पडे पत्थरो पर फिसल गया, जिससे मेरा घुटना दर्द करने लगा, अब मेरी ओर जांगडा की स्पीड एक हो गई थी, मतलब हम सबसे पीछे चल रहे थे, एक जगह जहां पर पानी की टंकी थी वहा थोडी देर रूककर पानी पीया, चले ही थे की तभी वहा पर बने एक घर मे कुछ छोटे छोटे बच्चे खेल रहे थे, वो हमे बॉय बॉय कर रहे थे। हमने रूक कर उन्हे अपने पास बुलाया ओर जिसके पास जो टॉफी बची थी वो उन्हे दे दी, मैने तो उनको दो टमाटो सॉस व हाजमोला के चार पांच पाऊच व जो टॉफी बच रही थी सब दे दी, वे बच्चे इन सब चीजो को पाकर बहुत खुश हुए। हम लोग बच्चो से मिलकर चल पडे, कुछ दूर जाने पर पता चला की मेरा गॉगल(चश्मा) कही गिर गया है, मैने नीरज को बोला की आप चलो मै अभी आया। कुछ दूर जाने पर मेरा गॉगल मिल गया, अब सबसे पीछे मै ही था, दर्द के कारण मे आराम आराम से चल रहा था, कुछ देर बाद मै जांगडा के पास आ गया, तकरीबन आधा घंटे बाद एक जगह हम दोनो आगे जा ही रहे थे की नीरज की आवाज आई की इधर से नही, नीचे जा रही पगडंडी से आओ। नीरज ने बताया की वह हम लोगो की वजह से ही यहां पर बैठा था, कुछ देर बाद हम गाडी पर पहुचं गए, समय लगभग दोपहर के साढ़े तीन बज रहे थे, खच्चर वाले को उसके पैसे दे दिए गए, बाईक पर जांगडा व नरेंद्र चले गए, उनसे यमुना ब्रिज पर मिलने को बोल दिया, बाकी हम गाडी में बैठ कर नीचे पंतवाडी की तरफ चल पडे। पंतवाडी में परमार स्वीट पर पहुचें, वहां से पता चला की नरेंदर ने होटल के खाने पीने का हिसाब चुकता कर दिया है, कुछ घंटो मे यमुना ब्रिज पहुचं गए, वहां से नरेंद्र भी गाडी मे बैठ गया ओर जांगडा साहब अपनी बाईक लेकर अपनी राह चले गए, हम लोग मसूरी की तरफ मुड गए, जहां से हम कैम्पटी फॉल से होते हुए, मसूरी गांधी चौक पर पहुचें, पर यहां पर हम रूके नही ओर सीधा रात को तकरीबन साढ़े नौ बजे हरीद्वार पहुंचे, एक होटल पर खाना खाया ओर शांतिकुंज आश्रम में एक बडा कमरा ले लिया, कमरा लेने के बाद मैं ओर नीरज पंकज जी को रेलेवे स्टेशन पर छोडकर वापिस शांतिकुंज आ गए, जहां पर हम रात गुजार कर सुबह सुबह दिल्ली के लिए चल पडे।

यात्रा समाप्त।
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अब कुछ फोटो देखे जाए इस यात्रा के....

सुबहे उठकर देखा तो पानी जमा हुआ था। 

सुबहें की चाय 


ट्रैकिंग चालू 






दूर से हमारा कैम्प दिखते हुए। 

अब रास्ते पर बर्फ दिखने लगी है। 

एक पेड़ दिखा जो अंदर से जला हुआ था। 

नरेंदर आराम करता हुआ। 

मै सचिन त्यागी रास्ते में आराम करता हुआ। 

पहुँच गए बस। 

हे हे हम पहुँच गए। 

सामने झंडी दिखती हुई। 

लो जी पहुंच ही गया 

नाग टिब्बा पॉइंट 

दूसरी तरफ नाग टिब्बा के 






किसी जानवर  के पैर के निशान।

पंकज, सचिन त्यागी ,जांगड़ा व नीरज जाट। 

वापसी देवता कैंप पर आने के बाद ( पहाड़ियों के पीछे है नाग टिब्बा )



टेंट व अन्य सामान पैक करते हुए 

सब सामान पैक हो गया है। 

चलिए वापसी नीचे की ओर। 


                                                                                      पहुँच गए हरिद्वार। 
                                                                   








शनिवार, 26 मार्च 2016

Nag tibba trek (pantwari to nag devta temple)नाग टिब्बा-2

25,Jan,2016, monday

मेरी आंखे सुबहे जल्द ही खुल गई, प्यास लग रही थी इसलिए बाहर होटल वाले से कह कर ओर पानी मंगा लिया, कुछ ही देर बाद सचिन जांगडा व पंकज जी भी ऊठ गए, होटल वाले ने नहाने के लिए गर्म पानी कर दिया था, लेकिन नहाने का मन ना हुआ फिर भी जल्दी जल्दी नहा लिया। क्योकी अगले दो दिन नाहने को नहीं मिलेगा , बारी बारी से पंकज और जांगड़ा भी  फ्रैश हो गए. हम तीनो नीरज के रूम पर पहुचें तो देखा जनाब अभी तक सो रहे थे, हम यह कह कर वहां से आ गए की हम तीनो रात वाले ढाबे (परमार स्वीट्स ) पर नाश्ता करने जा रहे है। नीचे होटल (ढाबे) पर आकर चाय ओर पंराठे बोल दिए, यही से पता चला की नरेश सहगल व उनके साथी ट्रैक पर सुबह ही निकल गए है, चाय नाश्ता करने के बाद हमने होटल वाले से बीस पंराठे पैक कराने को कह दिया क्योकी ऊपर पूरे ट्रैक पर कोई दुकान नही है, जो समान ले जाना होता है, वह नीचे से ही ले जाना होता है। नाश्ता करने के बाद हम तीनो ऊपर होटल की तरफ चल पडे।
जब हम होटल पहुचें तो देखा की नीरज होटल वाले (सुमन सिंह 08449238730 ) से बातचीत कर रहे है, नीरज ने मुझसे पुछा की ऊपर के लिए खच्चर कर लेते है, क्योकी समान ज्यादा है, इसके लिए मैने तुरंत हां कर दी, क्योकी हमारे बैग को छोडकर भी ट्रैकिंग का बहुत समान था, बातों बातों में पता चला की होटल वाला भी ऊपर खच्चर लेकर जाता है, उससे बातचीत की तो उससे तय हुआ की वह प्रति दिन के सात सौ रूपये लेगा। दो दिन के हिसाब से 1400 हुए और एक दिन के तीन कमरो का हुआ 1300 रूपए। कुल मिला कर 2700 रुपए उसके बने। हम उसको देने लगे तोह उसने कहा की ट्रैक से वापसी पर ले लेगा। इतना कह कर वह खच्चर लेने चला गया, हम सब ने अपनी जरूरत का सारा समान अपने अपने बैगो मे रख लिया और बाकी सारा समान कार की डिग्गी में डाल दिया, ओर ट्रैकिंग का सारा समान जैसे स्लिपिंग बैग, टैंट आदि सब खच्चर पर बंधवा दिया, खच्चर वाला यह कहकर चला गया की वह हमको ऊपर सडक पर मिलेगा, जहा से ट्रैक्किंग चालू होती है, वह ऊपर चला गया ओर हम नीचे ढाबे पर आ गए। जब तक सहयात्रियों  ने नाश्ता किया तब तब मैने ओर नरेंद्र ने सारा राशन पैक करा लिया, चाय की पत्ती से लेकर चीनी तक। साथ में ढ़ाबे वाले से एक पतीली ओर ले ली, कुछ टॉफी भी ले ली गयी और आपस में बाट भी ली, एक बात यह भी है की पुरे ट्रैक पर जांगड़ा और नरेंदर की वाइफ की कॉमेडी चलती रही जिसका सभी ने पूरा लुफ्त उठाया। अब हम गाडी व बाईक लेकर ऊपर सडक की तरफ चल पडे, पूरा रोड लगभग कच्चा ही बना है, तकरीबन आधा घंटे के बाद हम ऊपर पहुचें, यहां पर नीरज ने ऊंचाई नापी तो लगभग 1600मीटर दर्शा रही थी, जबकी पंतवाडी की ऊंचाई समुद्र की सतह से 1300मीटर थी, यहां से हमे लगभग 8.5km की पैदल चढाई करनी थी, ओर 3000 मीटर तक पहुचना था। यानी की हमे 8.5km  की दूरी मे 1400मीटर ओर ऊपर जाना था। वैसे आज हमे केवल नाग देवता तक ही जाना था।

गाडी व बाईक रोड पर एक तरफ लगा कर व अपना अपना बैग पीठ टांग कर हम लोग दोपहर के लगभग 11बजे ऊपर की तरफ चल पडे। यहां से गोट विलेज नामक रीजोर्ट की दूरी 2km है, हम सडक से ऊपर जाती से पगडंडी पर हो लिए, गोट विलेज का काम तेज चल रहा था, नीचे से बहुत सा समान गधो ओर खच्चरो पर आ रहा था, जिसके कारण इस रास्ते पर बहुत धुल उड रही थी, फिर हमारे कदमो से से भी धुल उड रही थी, इसलिए मै सबसे थोडी दूरी पर  व पिछे चल रहा था, शुरू मे रास्ता ज्यादा चढाई का है, कुछ चलने के बाद थोडा सा सांस लेने को रूक जाते, पर चलते रहते। थोड़ा ही चले थे की जांगड़ा भाई कहने लगे की ओर नहीं चला जाता में तोह वापिस जा रहा हुँ लेकिन हम लोगो की वजह से गया नहीं और धीरे धीरे चलता रहा, तकरीबन दो किलोमीटर चलने के बाद एक पाईप मे टंकी लगी देखी तो सबने वही पर अपने अपने बैग पटक कर थोडी सांसो को आराम दिया, यहां पर सबने पानी पिया ओर अपनी अपनी बोतलो में भी भर लिया, यही पर से ही खच्चर वाले ने दो कैनो मे पानी भर कर खच्चर पर टांग दिया। नीरज ने बताया की यहां से आगे इतना साफ पानी ओर कही नही मिलने वाला है। यहाँ पर कुछ घर भी बने थे लकिन इसके बाद जंगल चालू हो जाता है, फिर कोई घर रास्ते में नहीं मिलेगा।

पानी भरकर थोड़ा सा ही चले ही थे की भंयकर चढाई का सामना करना पडा, साथ मे रास्ते पर छोटे छोटे पत्थर बिखरे पडे थे, इन  पर फिसलने का डर भी था, थोडी दूर जाकर एक छोटा सा मैदान आया, जहां से रास्ता थोडा सामान्य हो गया, मतलब चढाई कम हो गई, आराम से चलते हुए हम एक छोटे से बुग्याल(घास का मैदान) पर पहुचे। सभी को चलते चलते जोरो से भूख लगने लगी थी, इसलिए यहां पर रूक कर हमने नीचे से लाए पंराठे आचार संग खाए। इस बुग्याल के बाद देवता मंदिर तक सारा रास्ता जंगल का ही है। नीरज ने बताया की यहीं पास में जगंल के अन्दर एक पानी का स्रोत है, जहां पर पीने का पानी है, परांठे खाने के बाद मै, नीरज ओर पंकज जी पानी की तलाश में चल पडे। थोडा चलने के बाद एक जगह एक छोटे से गढ्ढे मे पानी दिखा, ध्यान से देखा तो पानी हल्का हल्का बह रहा था, यह पानी रूका हुआ नही था इसका मतलब हम इसे पी सकते थे, यहां से एक बोतल पानी की भर कर हम ऊपर बुग्याल की तरफ चल पडे। बुग्याल पर जाकर तुरंत ही वहां से आगे चल पडे, अब हम ऊंचे ऊंचे पेडो के बीच बने रास्ते से गुजर रहे थे। रास्ते में दीमक लगे पेड टुटे बिखरे दिखाई दिए, जिस पर पंजो जैसे निशान भी थे, लग रहा था जैसे किसी जानवर ने इस पेड को अपने दांतो व पंजो से तोडा हो, दीमक खाने के लिए। यह देखकर हम आगे बढ चले।
कुछ दूर चले थे की हम लोगो को नरेश व उनके मित्र वापस आते हुए मिले, समय देखा तो तकरीबन शाम के चार बज रहे थे, नरेश ने बताया की वह सुबह चलकर नाग देवता वह वहा से चलकर नाग टिब्बा पहुचे। नाग टिब्बा पर थोडा समय बिताकर अब सीधे उतर रहे है, ओर अंधेरा होने से पहले ही पंतवाडी पहुचं जाएगे।
नरेश जी से मिलकर हम ऊपर की तरफ चल पडे, अचानक मुझे कुछ याद आया ओर मेनै उन्हे रूकने के लिए बोला, मुझे याद आया की हम राशन तो ले आए पर आग जलाने के लिए माचिस तो साथ लाए ही नही, शायद इनके पास मिल जाए, जब उनसे यह बताया की हमारे पास माचिस नही है तब उनके एक मित्र ने मुझे माचिस दे दी। नरेश जी को एक बार ओर शुक्रिया कर उनसे विदा ली, वैसे नरेंद्र ने बाद में बताया की रास्ते में एक मजदूर से माचिस ले ली थी।
जंगल वाला रास्ता बहुत सुंदर था, वैसे हमे कोई जानवर नही दिखाई दिया बस किसी पक्षी की आवाज सुनाई देती रहती , वैसे जंगल इतना शांत था की हमे केवल अपने पैरो तले कुचले जाने वाले सुखो पत्तियो की आवाज सुनाई दे रही थी। मै, पंकज व जागंडा भाई सबसे पिछे चल रहे थे, एक जगह हम तीनो थोडी देर सांसो को सामान्य बनाने के लिए रूके, मतलब आराम के लिए रूके, अपनी अपनी बोतलो से पानी पीया, यह जगह जंगल के बीचो बीच गहन शांति वाली थी, यहां पर इतनी शांति थी की हमे अपनी सांसो की आवाज भी बहुत तेज सुनाई दे रही थी। जब हम रूकते तो ठण्ड लगने लगती जब चलते रहते तो ठण्ड नहीं लगती बल्की गर्मी लगती।
यहां से थोडी देर बाद हम चल पडे, हमारे साथियो की आवाज सुनाई नही पड रही थी, मै भी पंकज व जांगडा से आगे हो गया, तकरीबन आधा घंटे बाद मुझे एक कमरा सा दिखलाई पडा, ओर उसके पास एक बडा सा मैदान जो चारो ओर से जंगल से घिरा था, कमरे के पास तीन टैंट लगे थे, जो शायद हम जैसे ट्रैकर ही थे, यह कमरा जंगल विभाग वालो का था, जिसमे दो कमरे बने है जो गंदे थे क्योकी इसमे खच्चर व खच्चरो के मालिक रात गुजारते है। इन कमरो से कुछ दूर हमारे साथी रूके हुए थे ओर सारा समान एक जगह रखा था, वहां पहुचते ही नीरज ने कहा की चलते चलते शरीर गर्म रहता है पसीने भी आते है इसलिए अंदर के कपडे चेंज कर लो नही तो ठंड लग सकती है। सबने इधर उधर जाकर अपने कपडे चेंज कर लिये ओर दिन छिपने से पहले उजाले में ही अपने अपने  टेंट लगा लिए, अब आग जलाने के लिए लकडी लेने जाना था बस, तभी एक पेड दिखलाई दिया जो दीमक के खाने की वजह से खोखला हो चुका था, काफी मसक्कत करने के बाद वह पेड हमने तोड दिया पर ज्यादा भारी होने के कारण हम उसे ऊपर ना ला सके ओर वही उसको तोडने लगे, थोडा सा ही तोड पाए ओर वह पेड रपट कर नीचे जंगल मे गिर गया, हम बहुत हताश हो गए, क्योकी उसके लिए हमने बहुत महनत की थी, में और नीरज नीचे जाकर जंगल से ओर  लकड़ी ले आए, ओर आसपास से भी  हमने बहुत सारी लकडी इक्कठी कर ली। आग जला दी गई, नरेंदर व दोनों महिलायो को चाय बनाने के लिए बोल कर हम तीनो(मै, नीरज व पंकज) एक पहाडी पर बैठ गए, वहां से सूर्यास्त का बेहतरीन नजारा देखने को मिला, हम आपस मे बात कर रहे थे की मुझे नागदेवता मन्दिर के पास पेडो के बीच कुछ हलचल सी दिखाई दी, नीरज ने कैमरे से जूम कर के देखा तो हिमालयन रेड फॉक्स (लोमडी) थी वो भी दो, कुछ देर बाद वह दोनों लोमडी जंगल में चली गयी फिर जंगल से बंदरो की आवाज आने लगी।
हम तीनो बाद मे मन्दिर के पास गए, यह मंदिर नाग देवता को समर्पित है जो यहाँ के देवता है, मंदिर के पास ही एक पानी का कुण्ड है जिसमे पानी था. मंदिर के पास एक नया मंदिर और बना है. कुछ टीन सैड भी गिरे है जिनमे से कुछ टूटे फूटे है। अब कुछ अंधेरा होने लगा था इसलिए हम वहां से ही लौट आए।

जब टैंट के पास आए तो अंधेरा पूरे क्षेत्र मे फैल चुका था, चाय बनाने के लिए रखी जा चुकी थी, साथ मे रात के लिए खिचडी बननी थी उसके लिए सभी अपने अपने हिसाब से काम कर रहे थे, कोई प्याज तो कोई टमाटर काट रहा था, साथ में हंसी मजाक का दौर भी चल रहा था, जंगल मे मंगल हो रहा था, ऊपर देखा तो आसमान में तारे पूरी चमक के साथ झिलमिला रहे थे, ओर लग रहा था जैसे वो आज धरती के कुछ ज्यादा ही नजदीक
आ गए हो। तभी एक पहाडी कुत्ता हमारे पास आ गया, वह बेहद शांत लग रहा था, हमने उसे बचा परांठा व बिस्कुट दिए। फिर तो वह रात तक हमारे साथ ही रहा।
तकरीबन दो घंटे में हमारी खिचडी बन कर तैयार हुए, खिचडी के बनने मे लगे समय को देखकर बीरबल की खिचडी वाली कहानी याद आ गई, एक बार फिर चाय बना डाली, खिचडी खाने मे स्वादिष्ठ बनी थी, मैने तो दो बार खिचडी खाने के लिए ली। खिचड़ी खाने के बाद भी हम लोग आग के पास बैठे रहे. चारो तरफ घुप अँधेरा छाया हुआ था, में सोच रहा था की हम इतनी दूर केवल इस सुनसान काली रात व इस सन्नाटे को महसुस करने के आये है। यह रात आज कितनी भी लम्बी क्यों ना लगे पर बाद में यही रात हमारे जेहन बस जाएगी। इस ट्रैक पर किताबों की पढ़ी बातें वास्तविक रूप से अनुभव की जैसे एक इंसान को अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए हर कठनाई का सामना खुद करना होता है,लोग आपके साथ तोह रहगे लकिन राह पर खुद ही चलना होगा। यहाँ हम एक अंजान जगह है हर कोई काम कर रहा है सब मिलजूल कर काम कर रहे है यही संगठन है और जहां संगठन है वहां हर काम आसानी से हो जाता है।
काफी देर बाद हम  सभी अपने अपने टेंटो में जाने लगे। शायद रात के दस बज रहे थे, ठंड भी लग रही थी, नीरज ने अपने बैग से एक मौसम नापने का यंत्र निकाला तो वह माइंस मे टैमप्रेचर दिखा रहा था, रात को उसे बाहर पत्थर पर ही रख दिया, और फिर सब अपने अपने टैंट में आकर लेट गए, ओर अपने अपने स्लिपिंग बैग में घुस गए,  ठंड के कारण मेरे पैर सुन्न हो रहे थे फिर मैने अपने बैग से एक गरम चादर निकाल कर अपने पैरो पर लपेट ली, उसके बाद तो थोडी देर बाद मुझे पता ही नही चला की मै कब सो गया।

यात्रा अभी जारी है....
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कुछ फोटो देखे जाएं इस यात्रा के......

 पंतवारी गाँव का मन्दिर 

गेट के अंदर जहां हम रात रुके थे वह होटल दिख रहा हे। 


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परमार होटल के पास जांगड़ा व पंकज जी। 

में (सचिन त्यागी ) व सचिन जांगड़ा 

ट्रैक्किंग चालू 

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 थोड़ा सांस ले लू भाई 

गोट विलेज बन रहा है पीछे लेबर काम कर रही है। 

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पानी की टंकी आ गयी जितना पानी भरना है भर लो। 

छोटा सा बुग्याल आ गया जहा हमने परांठे खाए थे। 

बुग्याल सर्दी की वजह से सूखे है। 

जंगल का रास्ता चालू 


नरेश सहगल व उनके मित्र मिले। 

नीरज जाट आराम से खड़े हुए सांसो को सामान्य बनाते हुऐ। 
वन विभाग के कमरे दीखते हुए। 

टेंट लग चूके है। 

सूर्यास्त का बेहतरीन नजारा। 


नागदेवता का मंदिर 

पानी का कुण्ड(देवता  मंदिर )

नाग देवता मंदिर 

हमारा कैंप रात में 

चाय 

हंसी मज़ाक के वह पल। 


खिचड़ी बन गयी। 
गुड नाईट