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गुरुवार, 28 जुलाई 2016

बद्रीनाथ यात्रा (चरणपादुका, माणा गांव व बद्रीनाथ मन्दिर दर्शन)


आपने अभी तक पढा़ की हम कुछ दोस्त सतोपंथ ट्रैकिंग के लिए, दिल्ली से बस के द्वारा बद्रीनाथ पहुचें। अब आगे.....(पिछला भाग

12 जून 2016

सुबह आराम से ऊठे, फ्रैश होकर सभी लोग बद्रीनाथ मन्दिर की तरफ चल पडे। सुबह के 9 बज रहे थे। मै, जाटदेवता व रमेश जी गर्म पानी के कुंड में नहाने चले गए, तब तक बाकी लोग मन्दिर की तरफ चले गए। हम लोग नहाने के बाद ऊपर मन्दिर के पास बनी सीढियो तक ही पहुंचे थे की बाकी के दोस्त वापिस आते दिखे, हमको देखते ही अमित तिवारी जी कहने लगे की मन्दिर दर्शन के लिए लाईन बहुत लम्बी है, शायद चार या पांच किलोमीटर लम्बी तो है ही। क्यो ना पहले चरणपादुका व नीलकंठ पर्वत के बेसकैम्प तक हो आए। सभी की सहमति से हम चरण पादुका की तरफ चल दिए, क्योकि हम उपर जा रहे थे और वहा कुछ खाने को मिलने से रहा और सुबहे से कुछ खाया भी नहीं था इसलिए मैने व अमित तिवारी जी ने कहां की पहले नाश्ता कर लेते है, जबकी कुछ दोस्तो ने नाश्ता करने को मना कर दिया। फिर भी वह हमारे साथ एक रैस्तरा में आ गए। हमने आलू परांठा व चाय के लिए बोल दिया, बाकी दोस्तो की भी राय बदल गई ओर सबने यही नाश्ता करने का फैसला कर लिया। ग्वालियर से आये विकाश नारयण का व्रत था इसलिए विकाश ने अपने लिए केले ले लिए, चाय नाश्ते करने के बाद हम लोग बद्रीनाथ मन्दिर के पास से ही जाते हुए एक रास्ते पर चल पडे।
 
बद्रीनाथ की ऊंचाई 3040 मीटर है और आज हम चरणपादुका व ऊपर नीलकंठ पर्वत के बेस कैम्प तक घुम आएगे, जिससे हम यहां के मौसम के अनुकुल अपने शरीर को ढाल सके। क्योकी एक दम जब हम इतनी ऊंचाई पर आ जाते है तब हमारा शरीर की कार्य प्रणाली में एक दम बहुत बदलाव आ जाता है, जिसे शरीर बहुत कम बर्दाश्त कर पाता है, उल्टी, सर दर्द, चक्कर आना यह सब हो जाता है, इसलिए कही भी ट्रैकिंग करने से पहले,  वहा पर एक दो दिन आसपास घुम लो जिससे हमारा शरीर वहा के मौसम के अनुकुल हो जाए। इसलिए अमित तिवारी जी ने सतोपंथ यात्रा से पहले चरणपादुका व नीलकंठ पर्वत तक यह आठ नौ किमी की ट्रैकिंग करने को कहा, जिससे हम लोगो को आगे परेशानी ना हो।

हम लोग मन्दिर के पास से ही जाते एक रास्ता पर चल पड़े, पहले एक आश्रम पडता है जिसे मौनी बाबा का आश्रम कहते है, मौनी बाबा के आश्रम से चढाई थोडी तीखी हो जाती है, पर हम में से किसी को कोई तकलीफ नही हो रही थी, रास्ते में एक हनुमान मन्दिर पडा, जिसे गुफा वाला मन्दिर भी कहते है, यहां पर हम सभी लोग अंदर जाकर दर्शन कर आए, यहां पर हमे एक योगी बाबा मिले जो यही पर तपस्या करते है। मन्दिर से प्रसाद लेकर हम चरण पादुका की तरफ चल पडे। जिधर हम चल रहे थे उसके दूसरी तरफ पहाडो पर बहुत से झरने गिरते दिख रहे थे, बीच मे रिशिगंगा नदी बह रही थी, और कुछ बर्फ के छोटे ग्लेशियर भी थे, जहां पर कुछ लोगो को बर्फ पर चलने व उतरने की ट्रैनिंग दी जा रही थी। अमित तिवारी जी ने हमे बताया की इन पर्वतो के पिछे ही कही उर्वशी कुंड है जहां से यह पानी झरनो के रूप में गिर रहा है। बद्रीनाथ से कुछ दूर पर ही यह जगह थी। यह बडी ही सुंदर जगह थी, एक दम स्वर्ग जैसी। यहां की ताजी हवा, झरने व पानी की आवाज ओर चारो ओर फैले छोटे छोटे फूलो के पौधे, एक अलग ही रोमांच प्रकट कर रहे थे, मन में यही था की बस कुछ देर यही बैठे रहे।

 नीचे बद्रीनाथ में जहां पर बहुत लोगो की भीड मिली ऊपर हमारे व कुछ साधु लोगो के अलावा कोई नही था, कुछ ही देर बाद हम चरणपादुका पहुँच गए। चरणपादुका मे कोई मन्दिर नही है बस एक खुले में एक चट्टान पर कुछ पद्दचिन्ह बने है जिन्हे भगवान विष्णु के पदचिन्ह कहा गया है। कहते है की भगवान ने धरती पर सबसे पहले यही पर पैर रखा था। यहां पर एक योगी(तपस्वी) जो विदेशी था। वह हरी नाम की माला जप रहा था, मेरे एक साथी उनका फोटो खिंचने लगे तो उस तपस्वी ने इशारे से मना कर दिया। मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा की कोई बाहरी देश या संस्कृति का व्यक्ति हमारे धर्म व संस्कृति को अपना चुका है। जबकी हम लोग अपने धर्म को लेकर ही आपस में लडते रहते है। अपने धार्मिक स्थलो को गंदा करते है। चलो छोडो यह बाते आगे चलते है

  चरणपादुका पर कुछ गुफानुमा झौपडी में कुछ और भी तपस्वी  रहते है जो सालभर यहां रहकर तपस्या करते है। ऐसे ही एक बाबा ने हमे खाने के लिए प्रसाद भी दिया। लकिन वो नाराज भी थे, क्योकि हम उनकी गुफा में नहीं गये थे क्योकि हम लोग तो यहाँ की सुंदरता में इतने रम गये थे की और कही पर ध्यान ही नहीं गया , फिर हम पुरे ग्रुप में भी थे आपस में हँसी मजाक भी कर रहे थे।

 चरणपादुका दर्शन के बाद अमित, योगी व कमल सिंह नदी के उस पार चले गए, जबकी मैं (सचिन), संजीव त्यागी ,विकाश,  जाट देवता, सुशील जी व रमेश जी इस पार ही रहे। ओर आगे की तरफ चलते रहे। सिमेंट की बनी पगंडंडी अब खत्म हो गई। रास्ते के नाम पर छोडी सी पगडंडी ही रह गयी थी उसी पर हम चल रहे थे। हम एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां से हमे आगे एक धार पर चलना था। (धार मतलब वह जगह जहां पर दोनो तरफ ढलान  होती है ) धार पर चलना कठीन होता है, क्योकी यहां पर हवा बहुत लगती है। और दोनो तरफ ढाल होने के कारण डर भी लगता है। जाट देवता ने मुझे बोला की किनारे पर मत चलना, यह जोखिम भरा हो सकता है। वैसे में बीच में ही चल रहा था और यह रास्ता इतना भी खतरनाक नही था, लकिन सावधानी हर जगह रखनी चाहिए.

 यहां पर मोबाईल एप से ऊंचाई नापी तो देखा 3600 मीटर ऊंचाई थी, इसका मतलब हम बद्रीनाथ से 600 मीटर ऊपर आ चुके थे इन छ, सात किमी में। धार को पार करके एक समतल जगह आई यहां से नीलकंठ पर्वत अभी भी दो किलोमीटर कम से कम था। यहाँ पर हम थोडा आराम के लिए बैठ गए। एक लोकल व्यक्ति मिला जो अपने बैल को उपर लेकर जा रहा था। अब हमे आगे पत्थरों के बीच से जाना था, लेकिन थोडी देर बाद मौसम बिगड़ गया, बारिश और चारो तरफ धुंध की सफेद चादर सी बीछ गई, दूसरी तरफ से अमित ,योगी व कमल वापिस नीचे की और लौट गये, सुशील व विकाश ने कहा की वह नीलकंठ पर्वत के बेस कैम्प तक जाएगे। इसलिए उन्हें छोड कर हम वापिस लौट चले लेकिन बारिश की वजह से वह लोग भी आगे नही जा सके और हमारे साथ ही वापिस लौट आए, दूसरी तरफ वाले भी ग्लेशियर के पास घूम रहे थे। लगभग आधे घंटे बाद हम सब चरणपादुका पर मिल गए, बारिश भी बंद हो चुकी थी ओर मौसम भी साफ था। वहां से हम एक नए रास्ते से उतरते हुए, अपनी धर्मशाला की तरफ चले पड़े। 

दोपहर के 2:20 हो रहे थे, धर्मशाला के पास ही एक अन्य धर्मशाला में कढ़ी चावल का भंडारा लगा हुआ था। यही पर सबने भंडारा खाया और कुछ दान देकर वापिस कमरे में पहुंच गए। वापिस आकर कल के लिए जरूरत के समान की लिस्ट के अनुसार समान खरीदने के लिए, अमित तिवारी व एक पार्टर बाहर बाजार चले गए। सुशील जी व अन्य लोगो ने आराम करने को बोल दिया। लेकिन मैं, जाटदेवता, कमल व विकाश माणा की तरफ चल पडे, अभी दोपहर के तीन ही बज रहे थे। एक चौक से 300 रू में माणा तक आने जाने की जीप कर ली। वैसे माणा बद्रीनाथ से मात्र तीन किमी ही दूर है। पर हमने जीप करनी ही सही समझा। जीप ने हमे माणा गांव के बाहर उतार दिया।

माणा गाँव भारत का आखिरी गाँव:- माणा गांव को भारत तिब्बत सीमा के नजदीक होने के कारण व आगे आबादी क्षेत्र ना होने के कारण भारत का आखिरी गांव कहा जाता है। सर्दियों मे माणा गांव के नागरिक भी गोपेश्वर चले जाते है लेकिन गर्मी स्टार्ट होते ही यह वापस माणा आ जाते है, यह लोग भेड की ऊन से बने गर्म कपडे, टोपी बेचते है, तथा पहाडो पर पाए जाने वाली दुर्लभ जडुबूटी बेचते है, चाय में डालने वाला मसाला भी बिकता है यहां पर। माणा गांव समंद्र की सतह से लगभग 3200 मीटर ऊंचाई पर बसा है। यहां पर देखने के लिए व्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, भारत की आखिरी चाय की दुकान व सरस्वती नदी है।

हम लोग जीप से उतर कर एक पतले से रास्ते पर चल पडे। जगह जगह छोटे छोटे घर व उनमे बैठी औरते समान बेच रही थी, हमने भी कुछ चाय मे गिरने वाला मसाला लिया। आगे चलकर दो तरफ रास्ता चला जाता है, एक तरफ भीम पुल, सरस्वती नदी के लिए तो दूसरी तरफ व्यास गुफा व गणेश गुफा के लिए। हम लोग बांये तरफ जाते रास्ते पर चल पडे। थोडी दूर जाते है एक गुफा मे एक बाबा बैठे दिखे जो लोगो को भभूत (भस्म) दे रहे थे। थोडा सा ही चले थे की सरस्वती नदी का तेज पानी व शोर सुनकर वही सन्न खडे रह गए। सरस्वती नदी का जल बहुत तेजी से नीचे गिर रहा था। कहते है जब पांडव इस रास्ते से स्वर्ग जा रहे थे तब द्रौपदी इस जल को देख कर डर गई तब महाबली भीम ने पहाड ऊठा कर जल के ऊपर से पुल बना दिया, जिससे सभी पांडव व द्रौपदी ने सरस्वती नदी को पार किया। यह पुल आज भी मौजूद है जिसे भीम पुल या भीमसेतु कहा जाता है। हम भी इसी पुल से सरस्वती नदी को पार करते हुए,  भारत की अंतिम चाय की दुकान पर पहुंचे । यहां से हमने अमुल की लस्सी लेकर पी। जिसके लिए mrp से पांच रूपया अधिक चुकाने पडे। वसुधारा जल प्रपात के लिए भी यही से रास्ता जा रहा था पर इतना समय नही था की हम वहां तक हो आए,  इसलिए वहां जाना कैंसील कर दिया ।

सरस्वती नदी का जल नीचे की ओर चला जाता है ओर नीचे गहराई में जल नही दिखता कहते है यह जल अलकनंदा मे मिल जाता है, जहां यह जल मिलता है वह जगह केशवप्रयाग के नाम से जानी जाती है।
भीम पुल व सरस्वती के वेग को देखकर मन प्रसन्न हो गया। फिर हम लोग वापिस चल पडे। एक जगह ऊपर की ओर रास्ता जा रहा था, जिस पर हम लोग चल पडे। यह रास्ता सीधा व्यास गुफा तक जाता है। हम लोग व्यास गुफा देखने अंदर चले गए। अंदर बैठे एक बाबा ने व्यास गुफा के बारे में हम लोगो को बताया की यहां पर महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत कथा का उच्चारण किया था, द्वापर युग समाप्त होने वाला था व कलयुग आरंभ होने वाला था, इसलिए महाभारत ग्रंथ लिखा जाना आवश्यक था, इसलिए वेद व्यास जी भगवान गणेश जी के पास पहुंचे । उनसे महाभारत कथा लिखने के लिए प्रार्थना की तब गणेश जी ने कहा की मै महाभारत कथा तो लिख दुंगा पर आप बोलते रहने बीच मे क्षण भर के लिए भी रूकना नही, आप रूके तो मै वही कलम छोड दुंगा। गणेश जी को आस्वासन देकर व्यास जी ने अपनी गुफा से लगातार महाभारत कथा का उच्चारण किया और व्यास गुफा से थोडी दुर पर स्थित गणेश गुफा में गणेश जी ने महाभारत कथा या लेख को लिखा। इसलिए जो लोग बद्रीनाथ आते है वह माणा गांव जरूर आते है क्योकी ऐसी पवित्र जगह को देखे बिना कोई कैसे रह सकता है। हम लोग भी वेद व्यास गुफा को देखकर बाहर आ गए। गुफा में फोटो खिंचना मना है। बाहर आकर हम लोग नीचे की तरफ चल पडे, थोडी दूर पर ही गणेश गुफा थी जहां पर भी हम दर्शन कर आए। जब हम लोग माणा गांव के सभी दर्शनीय स्थल घुम लिए तब हम वापिस चल पडे,  फिर वहां से अपनी जीप पकड कर धर्मशाला पहुचं गए। 

कल हमको सतोपंथ स्वर्गारोहिणी ट्रैक पर जाना था, जिसके लिए सब यहां तक आए, लेकिन मेरे साथ किस्मत ने अलग ही खेल खेला, जब हम चरणपादुका से लौट रहे थे। तब मेरे घर से फोन आया की कोई जरूरी काम है इसलिए तुम वापिस आ जाओ। मेरे लिए वह जरूरी काम भी करना आवश्यक था। लेकिन साथ में मेरा सपना भी था की मैं यह ट्रैक करू। जिसके लिए मैं दिल्ली से इतनी दूर आ चुका हुं। लेकिन एक काम के लिए दुसरा काम छोडना पडता है इसलिए मैने अपने मन को समझाकर अपने साथियो को बता दिया की मै आगे नही जा रहा हुं कल बद्रीनाथ से ही मै लौट जाऊंगा। थोडा दुख तो हुआ की मै नही जा पा रहा हुं, पर यही जीवन है। जीवन मे हर चीज इतनी सरल नही होती है। इसलिए माणा से आते वक्त मै जीप से उतर कर बस स्टैण्ड पहुचां और अगले दिन की सुबह  हरिद्वार जाने वाली बस में टिकेट बुक करा आया।

टिकेट बुक करा कर कमरे में आया ही था की जम्मू से आए हमारे साथी रमेश जी ने मुझसे कहा की वह भी आगे सतोपंथ नही जा रहे है। उनको लग रहा था की वह सतोपंथ नहीं कर पाएंगे, मैने उनको बहुत कहा की हर किसी को ऐसा मौका नहीं मिलता। मेरी तोह मजबूरी थी की में यह ट्रेक नहीं कर पा रहा हुं। पर आप इसे कर सकते है। पर उन्होंने अपनी सेहत का हवाला देते हुए सतोपंथ ट्रेक पर जाना कैंसिल कर दिया। इसलिए उन्होने मुझ से कहा की उनकी भी एक टिकेट हरिद्वार तक की बुक करा दो। फिर मै और रमेश जी बस स्टैंड पर जाकर उसी बस मे एक और टिकेट बुक करा आए। 

शाम के तरीबन 6:30 हो रहे थे। मै बद्रीनाथ जी के दर्शन करने के लिए जा रहा था, मेरे साथ रमेश जी व विकाश कुमार भी चल पडे। गर्म पानी के कुण्ड पर जाकर हाथ - मुंह धौए गए। फिर हम लोग मन्दिर की तरफ चल पडे। मन्दिर पर जाकर देखा तो बहुत लम्बी लाईन लगी थी दर्शनो के लिए। मै लाईन में लग गया, जबकी दोनो मित्र लाईन से बाहर ही खडे रहे। लाईन बहुत लम्बी थी, इसलिए मैं लाईन मे लगे एक अंकल को यह कहकर आ गया की अंकल में अभी आया। मै लाईन से निकलकर कर सीधा मन्दिर के मुख्य गेट पर पहुंचा, वहा पर कुछ पुलिस वाले मुख्य (vip) आदमियो को बिना लाईन मे लगे ही अंदर जाने दे रहे थे। मै भी उधर से अंदर जा ही रहा था लेकिन पुलिस वाले ने अंदर जाने ही नही दिया। लेकिन कुछ देर बाद मै वही से अंदर चला गया। अंदर दर्शन करने के पश्चात् मैं वापिस मन्दिर के बाहर आ गया। बाहर आकर देखा तो लाईन वही की वही खडी थी, अपने दोनो मित्रो को में वही से लेकर, मन्दिर में दोबारा चला गया, दोनो मित्र भी इतनी जल्दी दर्शनो से बहुत खुश हुए। हमने मन भर कर भगवान बद्री विशाल के दर्शन किए। कुछ देर मन्दिर मे बैठे रहे फिर दान दक्षिणा की पर्ची कटवाकर, बाहर आ गए। बाहर निकले ही थे की बाकी के सभी मित्र मिल गए। मै ओर रमेश जी वापिस धर्मशाला आ गए। धर्मशाला आकर देखा तोह कमरे की चाबी नहीं थी। शायद जिससे मैनें प्रसाद लिया था शायद चाबी वही छुट गयी थी। फिर मैं वापिस गया और प्रसाद की दुकान पर रखी चाबी ले आया। बाद में हम खाना खाकर अपने अपने बैड पर सोने के लिए चले गए।
 
13 जून को सुबह जल्दी उठ गया, फिर सभी से मिलकर हम दोनों बस स्टैंड को चले गये। मन बहुत उदास था। क्योकि मैने इस ट्रेक के लिया बहुत महनत की थी, लकिन किस्मत में जाना नहीं था। हम दोनों बस में आकर  बैठ गए। शाम को तकरीबन 6:30 पर हम हरिद्वार उतरे। जहां से रमेश जी रात 9 बजे की ट्रैन पकड चले गए, बाकी मै कुछ देर गंगा किनारे बैठा रहा और रात को 11 बजे दिल्ली की बस में बैठ गया। जिसने मुझे सुबह गाजियाबाद मोहननगर चौराहे पर उतर गया, जहां से अॉटो पकड कर घर पहुंचा गया।

यात्रा समाप्त...........

इस यात्रा के सभी फोटो जो कैमरे में थे वो गलती से डिलीट हो गए, जो फोटो आप देख रहे है वो फोटो मेरे मित्रो ने मुझे दिए है , इसलिए में उन सभी का धन्यवाद करता हु.
बदरीनाथ का दर्शये


सुशील कुमार ,सचिन त्यागी व रमेश जी 

ऊर्वशी कुण्ड से आता एक झरना 





कैप्शन जोड़ें
हनुमान मन्दिर पर हम दोस्त    (संजीव त्यागी)
चरण पादुका चिन्ह

रिशिगंगा नदी  के उस पर जाते अमित तिवारी
हमे अभी  इसी तरफ ही  चलना है 
बारिश से बचने के लिए एक यहाँ सरन ली
बद्रीनाथ वापिस आ गये 
माणा गाँव
माणा गाँव में गर्म कपड़े बेचती एक स्त्री
एक शाइन बोर्ड दर्शनीय स्थलों की दूरी बताता



लस्सी पीते हुए
मैं सचिन भीम पुल पर और पीछे सरस्वती नदी दिखती हुई 

सरस्वती नदी का प्रचण्ड वेग 

भीम पुल








वेद व्यास गुफा

गणेश गुफा

गणेश गुफा पर मैं सचिन 


मंगलवार, 26 जुलाई 2016

बद्रीनाथ यात्रा (दिल्ली से बद्रीनाथ) badrinath yatra

10june2016

बद्रीनाथ मंदिर के सामने मैं सचिन त्यागी


10 जून की शाम को हम कुछ दोस्त दिल्ली कश्मीरी गेट ISBT पहुँच गए। हम लोगो को टर्मिनल नम्बर 12 से हरिद्वार की बस पकडनी थी, फिर हरिद्वार से बद्रीनाथ जाने वाली बस। यह यात्रा कैसे बनी इस के बारे में कुछ बताता हुं। पहले मुझ जैसे घुमने फिरने व नई नई जगहो पर जाने वाले लोगो को कही भी घुमने जाना होता था, तब बहुत तैयारी करनी होती थी, कोई अगर संग जा रहा है तो वह भी हमारे जैसा विचार वाला ही हो यह भी ध्यान मे रखा जाता था। लेकिन जब से इंटरनैट का चलन बहुत हद तक सभी के मोबाईल में होने लगा, फेसबुक, वटसऐप जैसी सुविधाएं हमे मिलने लगी। तब हम जैसे चाह रखने वाले कुछ लोगो ने ग्रुप बना लिए। जहां पर जाने से पहले सभी अपनी जानकारी ग्रुप पर दे देते है। ऐसा ही एक ग्रुप है "मुसाफिरनामा दोस्तो का" यहां पर कुछ दिन पहले ट्रैकिंग पर बात हो रही थी, कुछ दोस्तो ने सतोपंथ झील व स्वर्गारोहिणी जाने का प्रोग्राम बनाया। यह ट्रैकिंग तकरीबन पांच दिन की थी बद्रीनाथ से बद्रीनाथ तक। बाकी सभी जानते थे की यह एक मुश्किल ट्रैक है। फिर भी हम दस लोग यहां पर जाने को तैयार हो गए, मैने इसके लिए, रोजाना सुबह दौड लगानी भी आरंभ कर दी थी। इसलिए ही हम जो लोग दिल्ली, गुडगाँव व गाजियाबाद से थे वो 10 जून को दिल्ली ISBT  पहुचं गए। हरिद्वार जाने के लिए।

मै, बीनू कुकरेती, संजीव त्यागी, अमित तिवारी, जाट देवता (संदिप पंवार), कमल सिंह व अन्य दो मित्र, दिल्ली से हरिद्वार वाली बस से चल पडे।  गाजियाबाद से योगी सारस्वत जी भी दूसरी बस से चल रहे थे। बाकी दो मित्र सुशील कुमार व रमेश जी पहले ही हरिद्वार पहुंच चुके थे और हम सब की बद्रीनाथ तक की बस की टिकट GMOU से पहले ही बुक करा चुके थे। हम सभी लोग रात 8:20 पर दिल्ली से चलकर सुबह 3:30 पर हरिद्वार बस स्टैंड पहुचे। सुशील जी ने बस बुक कराने के बाद टिकेट की एक फोटो सबको दे दी, जिससे हमे बस ढुंढने मे परेशानी ना हो। बस देखकर हमने बस मे अपना सामान रख दिया फिर तकरीबन एक घंटा वही पर घुमते रहे, जिसे चाय पीनी थी उसने चाय पी जिसे फ्रैश होना था वह फ्रैश हो आया।

तकरीबन सुबह के 4:20 पर बस हरिद्वार से चल पडी,  हम बस मे दस लोग बैठे थे ओर बाकी दो (सुशील व रमेश) रास्ते में एक धर्मशाला से लेने थे, लेकिन ड्राइवर बोला की आपकी 10 सीट ही बुक है 12 नही, इसलिए कोई दो व्यक्ति पांच वाली बस से आ जाओ। जाट देवता व बीनू कुकरेती बस से उतर कर दूसरी बस में चले गए। बाकी हम बस में बैठे रहे, कुछ ही समय बाद बस हरिद्वार से चल पडी, रास्ते में सुशील व रमेश जी को भी ले लिया गया। अभी अंधेरा ही था, कुछ ही देर बाद हम ऋषिकेश  पहुचं गए। ऋषिकेश से पहाड चालू हो जाते है, ऋषिकेश से तकरीबन 14 किमी0 बाद शिवपुरी आता है, इससे पहले मैं यहां पर एक बार आ चुका हुं, क्योकी यहां पर लष्मण झूला तक राफ्टिंग होती है, मैने भी पहले यही से राफ्टिंग की थी और शिवपुरी के पास ही नीर जल प्रपात भी है। शिवपुरी से ब्यासी ओर कुंडियाला होते हुए हम पहले प्रयाग देवप्रयाग पहुंचे। यह प्रयाग भागीरथी  व अलकनंदा के संगम पर स्थित है और यही से यह दोनों नदी मिलकर  गंगा नदी कहलाती है। यहां पर रघुनाथ मंदिर व शिवमन्दिर दर्शनीय है। लेकिन मै बस में था। इसलिए यहां पर रूकना नही हो सका, एक फोटो संगम का बस से ही खींच पाया। जहां भागीरथी का जल हरा व साफ़ नज़र आता है वही अलकनंदा का जल मिटटी जैसा रूप (मटमैला ) लिए होता है।

देवप्रयाग रीशिकेश से तकरीबन 78 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां से एक रास्ता नई टिहरी की तरफ चला जाता है ओर एक रास्ता अलकनंदा के साथ साथ चला जाता है, जिस पर हम चल रहे थे। आगे चलकर हम श्रीनगर पहुंचे। देवप्रयाग से श्रीनगर की दूरी तक़रीबन 38 किलोमीटर है। यह एक बडा शहर है, यहां पर बैंक, मार्किट, कॉलेज, स्कूल सब कुछ है। अलकनंदा नदी यहाँ पर कुछ रुकी रुकी सी नज़र आती है। 
श्रीनगर से बीनू के एक दोस्त ने मुझे 5 लीटर मिटटी का तेल दे दिया जो सतोपंथ यात्रा के लिए था। क्योकि बद्रीनाथ में तेल मिले या ना मिले इसलिए पहले ही इंतजाम कर लिया गया।

श्रीनगर से हम दूसरे प्रयाग रुद्रप्रयाग पहुंचे। रुद्रप्रयाग भी काफी बड़ा शहर है। श्रीनगर से रुद्रप्रयाग तक की दूरी मात्र 33 किलोमीटर है। रुद्रप्रयाग पर नारद मुनि जी ने भगवान शिव की उपासना की थी। नारद जी को आशीर्वाद देने के लिए शिव ने रौद्र रूप में अवतार लिया था। यहाँ का शिव मंदिर दर्शनीय है, रुद्रप्रयाग अलकनंदा व मंदाकनी नदी के संगम पर स्तिथ है। मंदाकनी नदी केदारनाथ के पास से आती है ,अभी बीते समय में इस नदी ने बहुत प्रलय मचाया था। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ तक की दूरी लगभग 72 किलोमीटर है। रुद्रपयाग से एक रास्ता चोपता के लिए भी जाता है, जिसे भारत का स्विट्ज़रलैंड भी कहते है, यही से तुंगनाथ मंदिर भी जाया जाता है। और एक रास्ता केदारनाथ के लिए, लकिन हमारी बस को अलकनंदा के किनारे किनारे ही जाना था बद्रीनाथ के लिए। रुद्रप्रयाग से चलकर हम गौचर होते हुए , तीसरे प्रयाग कर्णप्रयाग पहुंचे।

रुद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग लगभग 33 किलोमीटर की दूरी पर है। यह अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर स्तिथ है। यहाँ से एक रोड अल्मोड़ा ,कौसानी और नैनीताल की तरफ चला जाता है। यहां से हम चलते हुए  नंदप्रयाग पहुंचे , यह अलकनंदा और नन्दाकिनी नदी के संगम पर बसा है। यह चमोली जिले में आता है। यहां का चण्डिका मंदिर दर्शनीय है। कभी अपनी सवारी से आऊगा तब यह सारी जगह देखूंगा क्योकि अभी बस में होने के कारण यह जगह में देख नहीं पाया।

नंदप्रयाग से होते हुए हम चमोली पहुंचे फिर वहां से निकलने के बाद हमारी बस पीपलकोटी नाम की जगह रुकी। दोपहर के लगभग 2 बज रहे थे। यहाँ पर ज्यादातर सभी बस रूकती है। यहां पर  कुछ होटल ,ढाबे ,फल की दुकान व अन्य बहुत से दुकाने थी। कुछ लोगो ने खाना खाया। मेरा मन नहीं था की खाना खाऊ इसलिए माज़ा की एक बोतल ले ली गई और एक चिप्स का पैकिट। अपना काम उसी से चल गया क्योकि सुबहे तीन धारा जगह पर एक परांठा खा लिया था, उसे खाने के बाद अब तक भूख नहीं लगी।

पीपलकोटी में कुछ देर रूककर बस चल पड़ी, यहां से बदरीनाथ जी अब भी 80 किलोमीटर था। कुछ ही समय बाद हम जोशीमठ  पहुंच गए। जोशीमठ भी एक अच्छी सिटी है। जोशीमठ से ही औली को रास्ता जाता है। औली के लिए केबल कार (ट्राली ) भी चलती है। जो आपको औली घुमा कर लाती है वैसे जोशीमठ में और भी मंदिर है जो दर्शनीय है इनमे नरसिंह मंदिर जहां सर्दियों में भगवान बद्रीनाथ ( विष्णु) की पूजा होती है जब तक बद्रीनाथ मंदिर के कपाट नहीं खुल जाते है।  यर यह एक पुराना शहर है जिसकी स्थापना आदि शंकराचार्य जी ने ही की थी। उनकी पूजा स्थली भी जोशीमठ में स्थित है। जोशीमठ से कुछ दूर विष्णुप्रयाग  है, यहां धौलीगंगा अलकनंदा नदी का संगम है।

जोशीमठ से कुछ दूर गोविन्द घाट है , जहां से फूलों की घाटी व श्री हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा के लिए रास्ता अलग हो जाता है। गोविंदघाट से कुछ ही दूरी पर पण्डुकेश्वेर नामक जगह आई , यहां पर पांडवकालीन मंदिर है जो सड़क से नीचे उतर कर अलकनंदा नदी के पास है। पांडुकेश्वर के बाद बद्रीनाथ तक का रास्ता लैंड्सस्लाइड जोन में आता है। लामबगड़ जगह तोह बहुत ही डरावनी जगह लगी ,हल्की बारिश में भी मलवा सड़क पर आ जाता है। खैर हमे कोई दिक़्कत नहीं हुई, रास्ते में कई जगह पानी बह रहा था, जिसे नाला कहते है, जब बारिश होती है तब यह बडा विकराल रूप ले लेते होंगे। अब चढाई चालू हो गई थी, दोनो तरफ विशाल उच्च पर्वत नजर आ रहे थे ओर हम इन पर्वतो के बीच में नदी के किनारे किनारे चल रहे थे और हम शाम के 5:30 पर बद्रीनाथ पहुंच गए।

बद्रीनाथ जाकर हमने एक धर्मशाला(बरेली वालो की ) में दो बड़े कमरे ले लिए। धर्मशाला बस स्टैण्ड के बिलकुल नजदीक थी। कुछ देर बाद हम सभी बद्रीनाथ मंदिर परिसर में घूम आये। मन्दिर के पास गर्म कुंड थे, जहां पर लोग नहा रहे थे, मन्दिर रात मे भी बडा सुंदर लग रहा था, कुछ देर आस पास घूमते हुए हम वापिस धर्मशाला लौट आए। जाट देवता भी आ चुके थे। बीनू का फ़ोन आ चूका था की व आज जोशीमठ ही रुक रहा है। रात को खाने में धर्मशाला में ही 70 रुपए की प्लेट मिल गई, खाना बहुत ही शुद्ध मिला, जिसको खाने के बाद हम सभी सोने के लिए चले गये।

कुछ बद्रीनाथ के बारे में :- बद्रीनाथ मन्दिर जिसे बदरीनारायण मन्दिर भी कहते है, यह मन्दिर नर व नारायण पर्वत के मध्य व अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य के चमोली में स्थित है। यह मन्दिर भगवान विष्णु के एक रूप बदरीनाथ जी को समर्पित है। रीशिकेश से बद्रीनाथ तक की सड़क से दूरी 295 किलोमीटर है। यह उत्तराखंड के चार धाम मे से एक धाम है। और पंच-बद्री में से एक बद्री है। यह मंदिर साल के छ महीने ही खुलाता है, बाकी शीतकाल में बद्रीनाथ के कपाट बंद कर दिए जाते है।

बद्रीनाथ के दर्शन करना हर हिन्दू की कामना होती है।यहां पर यात्री आकर गर्म पानी के कुण्ड में स्नान करने के पश्चात बद्रीनाथ जी के दर्शन करने के लिए जाते है, प्रसाद में कच्चे चने की दाल,  कच्ची मूंगफली की गिरी व मिश्री का प्रसाद चढ़ाया जाता है। बद्रीनाथ जी के लिए वनतुलसी की माला भी चढाई जाती है। बद्रीनाथ जी की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी है, यह चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में दिखती है। कहते है की इस मूर्ति को देवताओं ने नारदकुंड से निकालकर यहां पर स्थापित किया था। लेकिन बौद्ध धर्म अनुयायी ने इस मूर्ति को भगवान बुद्ध की मूर्ति समझ कर पूजा आरम्भ की। लेकिन आदी शंकराचार्य जी के सनातम धर्म प्रचार के समय बौद्ध अनुयायी इस मूर्ति को अलकनन्दा नदी मे फेंक कर तिब्बत चले गए। तब शंकराचार्य जी ने इस मूर्ति को अलकनंदा से निकाल कर इसकी पुन: स्थापना की।

बद्रीनाथ जी की एक कथा यह भी प्रचलित है की पहले यह स्थान केदार था, यहां पर भगवान शिव व पार्वती रहा करते थे, लेकिन भगवान विष्णु को यह जगह इतनी पंसद आई की उन्होने एक बच्चे का रूप बना कर, माता पार्वती को प्रसन्न कर लिया ओर बाद मे अपने लिए यह जगह उनसे ले ली।
बदरीनाथ नाम कैसे पडा इस जगह का इस पर भी एक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने यहां पर तपस्या की। तपस्या में लीन होने के कारण भगवान बर्फ में दब गए, तब माता लक्ष्मी जी ने बद्री(बेर) का पेड बनकर भगवान को हर मौसम से बचाया। बाद मे विष्णु भगवान ने लक्ष्मी के तप को देखकर यह कहा की आपका तप भी कम नही था इसलिए आज से यह जगह बद्रीनाथ के नाम से जानी जाएगी। कहते है जहां पर भगवान ने तप किया वहां पर तप की वजह से गर्म पानी का कुंड बन गया जो आज भी वहां पर मौजूद है।

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सभी दोस्त हरिद्वार में एक साथ



ऋषिकेश से देवप्रयाग के बीच में माँ गंगा 




कर्णप्रयाग




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बद्रीनाथ मंदिर दर्शन









बुधवार, 20 जुलाई 2016

एक यादगार यात्रा (कुमाँऊ)

हर किसी का मन पहाडो को देखने व वहा पर जाने को करता है, ऐसा ही मन हमारा भी हुआ, आज आपको बहुत पुराना व अपना यात्रा वृतांत पढ़वाता हु। 


यह यात्रा मैने और मेरे कजन मतलब मेरे चचेरे,ममेरे भाईयो ने एक साथ की थी, वो भी घर झूठ बोलकर, उस समय मेरी उम्र लगभग 21 वर्ष थी ओर केवल मुझसे मेरे मामा के लडके राजू भाई ही थोडे से बडे थे, बाकी सब के सब मुझसे छोटे ही थे, हुआ ये की एक दिन हम सब मिले ओर कही बाहर जाने का कार्यक्रम बना लिया, पर जाए कैसे क्योकी घर वाले जाने नही देगे , इसलिए सब के सब आइडिया लगाने लगे की कैसे जाए, मुझसे छोटा में चाचा का लडका वेदांत ने कहा की वह कर लेगा, सबसे पहले उसने नकली गिफ्ट कूपन छपवाए, किसी नामी कम्पनी  के, जो हमे राजस्थान की यात्रा पर ले जा रहे थे, फिर वह कूपन घर पर दिखाए जब सब को यकीन हो गया की हां यह गिफ्ट कूपन असली है ओर यह फ्री में जा रहे है तो घर के किसी बडे ने हमे नही रोका, बस फिर क्या था एक दिन सुबह सुबह हम लोग (8 सदस्य) किराए की टैक्सी कर निकल पडे नैनीताल। सुबह के चार बजे थे, घर से तो निकल लिए पर कुछ समान हमारा एक दुकान में रखा था, सुबह सुबह दुकान की शटर ऊपर ऊठा दी, कुछ देर बाद पडौस में कुछ लोग डंडा ऊठाकर कर हमे मारने के लिए दौडे चले आ रहे थे, जब वह नजदीक आए ओर हमे देखा तो बोले की क्या भइया बता तो देते की आप हो, हम तो यह सोच रहे थे की चोरो ने शटर तोड लिया दुकान का। हम सब बहुत हंसे ओर शुक्रिया भी किया भगवान का ,पता नही डंडा लग ही जाता अगर सचमुच में तो क्या होता.
मार्च का महिना था, मौसम भी अच्छा था ओर भीड भी नही थी, पर कमी थी कैमरे की,  किसी के पास कैमरा नही था, बस एक के पास मोबाईल था लेकिन उसमे भी कैमरा नही। हम सुबह निकले ओर सीधे मुरादाबाद रूके,  जहां पर सुबह के नाश्ते के लिए एक दुकान से ब्रैड व बटर ओर केले ले लिए, चलते चलते वो ही खा लिए, फिर हल्दवानी रूके वही रोड साईड ढाबे पर राजमा चावल का स्वाद लिया, मैने ओर गौरव (मेरे मामा का लडका) ने इस यात्रा पर खूब धमाल मचाया।
जैसे तैसे कर हम लगभग दोपहर के दो बजे नैनिताल पहुंचे, हम लोग पहली बार ही यहां पर आए थे, इसलिए यहां के बारे में कुछ नही पता था, झील के पास ही एक होटल मे ठहर गए।
सब कुछ देर बाद नैनिताल झील की सैर पर निकल पडे, कुछ ने नाव की सैर को मना कर दी, लेकिन मै ओर गौरव दोनो 150 रू में पूरी झील का चक्कर लगा आए, नाव वाले ने ही बताया की झील के इस पार तल्लीताल व उसपार मल्लीताल है, ओर एक तरफ की सडक को मॉलरोड व दूसरी को ठंडी सडक़ कहते है, नाव से ही माता नैना देवी का मन्दिर देखा, नाव वाले ने ही बताया की यहां पर सती माता का एक आंख गिरी थी। यहां का मौसम बडा सुहाना था, फिर घर से दूर भी थे, जो मन कर रहा था वो कर रहे थे। नाव वाले से कहकर नाव एक किनारे पर लगवा दी, वहां से तिब्बत मार्किट घुमे ओर फिर हम सब माल रोड पर मिल गए, जहां पर खाना खाकर हम वापिस होटल पहुंचे, अब अंधेरा चारो ओर फैल चुका था, दूर पहाड पर कुछ लाईट जल रही थी, जो दिखने में बहुत सुंदर लग रही थी, सचमुच यह मेरे जीवन में पहाड के प्रति प्रेम जगाने वाली यात्रा होने वाली थी।
होटल पहुचने पर पता चला की वेदांत का पर्स गायब हो गया है, दो तीन हजार रूपयो के साथ ड्राईविंग लाईसेंस व गाडी की RC भी चली गई, पर यह कहकर की घर जाकर नई बनवा लेना, हम सो गए..
दूसरा दिन...
सुबह ऊठ कर भवाली की तरफ चल पडे, यही पास मे ही कैंचीधाम मन्दिर है, वहा पर गए, दर्शन किए प्रसाद खाया ओर बाहर एक दुकान पर चाय व बटर टोस्ट खा लिए, फिर हम वहां से सातताल पहुंचे,  यह ताल मुझे बहुत अच्छी लगी, एकांत व शांत क्षेत्र, ना ज्यादा पर्यटक। यहां पर हमने बहुत देर तक बोट चलाई, एक दूसरे की बोट में टक्कर भी मारी, पानी की बोतल में पानी खत्म हो गया तो गौरव ने झील का हरा पानी ही पी लिया, अगर मुझे इतनी प्यास भी लगती तब भी मै वह पानी नही पीता। झील में नाव चलाने के बाद वही पास में बने एक रैस्तरा में खाना खा लिया गया, ओर फिर हम कुछ देर बाद वहां से चल दिए।
हम सातताल से सीधे मुक्तेश्वर चल पडे, मैने यह नाम उस दिन पहली बार ही सुना था, गढ़ मुक्तेश्वर तो मैने सुना व वहां गंगा में नहाया भी पर यह कौन सा मुक्तेश्वर आ गया, चलो इसे भी देखते है, हम चल ही रहे थे की एक बोर्ड पर रामगढ़ लिखा था, सब कहने लगे की शोले का रामगढ़ आ गया। सब के सब घर से निकल कर मजे कर रहे थे, सब अपनी ही मस्ती में थें। हम सब छोटे बडे का रिश्ता भूल कर सब एक दोस्त बन गए थे। कुछ देर बाद सबको ठंड लगने लगी, मुक्तेश्वर का छोटा सा बाजार आया, ना कोई यहां पर होटल था ना कोई गेस्टहाउस,  हम आगे बढते गए, जहां तक सडक गई एक जगह उत्राखंड सरकार का गेस्टहाउस देखा, एक बडा कमरा ले लिया शायद 1200रू में था, लाईट यहां थी नही इसलिए हर जगह के लिए पहले से ही मोमबत्ती हमे दे दी गई, खाने में पुछा तो बोले की रसोई है ओर हम बना भी देगे पर आपको ही सब लाना होगा, ड्रायवर संग राजू भाई चले गए ओर मैगी के पैकेट, सलाद के लिए खीरे व सुबह के लिए बटर व ब्रैड व नमकीन ले आए।
हम लोग होटल के पीछे की तरफ चल पडे होटल से ही हमारे साथ एक कुत्ता चल पडा, पहले तो हम डरे पर वह हमारी हिफाजत के लिए ही चल रहा था, वह कुती हमारे साथ साथ ही चल रही थी, हम पहाड के पिछे ढलते सूरज को देख रहे थे, जो बहुत ही सुंदर लग रहा था, दूसरी तरफ बर्फ से ढकी पहाडियां नजर आ रही थी। यह जगह बहुत ठंडी थी साथ में हवा भी बहुत तेज चल रही थी ओर साथ में चीड, देवदार, व बुरांस के पेड हवा के कारण हिल हिल कर शोर कर रहे थे। अब हम वापिस होटल की तरफ लौट आए।
रात हो चुकी थी, तारे बहुत नजदीक व सुंदर लग रहे थे। गेस्टहाउस के कर्मचारी ने बोला की मैगी तैयार है, हम लोगो ने मैगी खायी मोमबत्ती के उजाले में, साथ में वहा के कर्मचारी यह भी बता रहे थे की यहां पर तेंदुआ भी आ जाता है, ओर नीचे जंगल में तो पता नही कितने ही खतरनाक जानवर है, यह सुनकर हमारे ड्राइवर की हवा संट हो गई, ओर वह सीधा कमरे में जाकर सो गया। हम लोगो तो कुछ देर बाहर ही बैठे रहे, रात में तारें बहुत सुंदर लग रहे थे, फिर हम लोग गाडी के म्युजिक सिस्टम सें संगीत का आनंद उठाते रहे। ओर आखिरकार रात अधिक होने के कारण व सर्दी बढ जाने के कारण हम सोने के लिए चले गए।
तीसरा दिन...
मेरी व दो ओर भाईयो की नींद सुबह चार बजे ही खुल गई, क्योकी कल रात हमे वहा के कर्मचारीयो ने बताया की यहां की सुबह बडी सुंदर होती है, जब सूरज की पहली किरणे इन बर्फ से ढकी ऊंची चोटियों पर पडती है तब यह सोने जैसे चमकती है। बस इसलिए हम आज जल्दी ऊठ गए की ऐसा नजारा जरूर देखना है।  उठने के कुछ देर तक ऐसे ही बैड पर पडे रहे फिर ऊठकर रसोई में पहुचे शायद पांच बज रहे थे, चाय को बोलकर हम कम्बल लपेटकर होटल के आगन में बैठ गए। जहां से बहुत सारी बर्फ की चोटिया नजर आ रही थी, हल्का सा अंधेरा था पर हम सूर्योदय  देखने के लिए वही बैठे रहे।थोडी देर बाद चाय आ गई, बहुत ठंड थी पर सूर्योदय का वह नजारा जब बर्फ से ढंकी चोटिया लाल तो कभी सुनहरी दिखती है, वो हम देखना चाहते थे, फिर जिस घडी को हम देखना चाहते थे वह नजारा दिखा, मै शायद ही वह वर्णन कर पाऊ इसलिए एक शब्द कहना चाहुगा की चमत्कार जैसा था यह सब। वापिस कमरे में आ गए,  नहाने के लिए गरम पानी मिल गया, सभी नहा कर व चाय ओर टोस्ट का नाश्ता कर,  चोली की जाली नामक सुसाईड पोईंट की तरफ चल पडे। रास्ते में कुछ कुत्ते मिले जो लगातार हम पर भौंके ही जा रहे थे, लेकिन हमारी रक्षक फिमेल डॉगी(संगीता)ने सबको भगा दिया, ओर वह आगे आगे चलने लगी हम पिछे पिछे चोली की जाली पहुंचे। यहां पर कई सो मीटर खडी खाई है ओर एक पत्थर पर कुछ अंग्रैजो के नाम खुदे है शायद उनके नाम जिन्होने यहां से कुदकर जान दी हो।
चोली की जाली नाम लेते हुए जब शर्म आ रही थी। यहां से हम एक पहाडी पर चढ गए, जिसके आखिरी में एक शिव मन्दिर था, यह मन्दिर बिल्कुल ऐकांत में था, कोहरा धुंध चारो ओर फैल जाता था, लम्बे लम्बे पेडो के बीच यह मन्दिर बना था, यहां पर दर्शन कर हम दूसरी तरफ बने रास्ते पर चल पडे, जो होटल की दूसरी ओर उतरता है, हम नीचे पहुचं कर गाडी मे बैठ गए ओर चल पडे अगली मंजिल रानीखेत की तरफ।
रास्ते में रूकाते व सुंदरता को निहारते हुए पहुच गए रानीखेत, बीच में एक मन्दिर भी पडा झूला देवी का पर हम मन्दिर नही गए बस मन्दिर के नीचे जंगल में घुम आए, फिर यहां से चल पडे लगभग शाम हो चली थी जब गम रानीखेत पहुचे। पास मे ही एक होटल ले लिया, मै ओर दो भाई समान रख कर बाहर घुमने निकल पडे, जब हम होटल में वापिस आए तो रोने वाली सूरत बना ली ओर कहने लगे की चाचा को पता चल गया है की हम झूठ बोलकर यहां आए है, ओर वो कल यहां पर आ रहे है, इतना सुनते ही चाचा का लडका रोने लगा कहने लगा की बहुत मार पडेगी, जब ज्यादा ही हो गया तब हमने उसे बताया की हम तो मजाक कर रहे है उन्हे नही पता चला। जब उसकी जान में जान आई।
फिर हम रात को होटल में खाना खाकर जल्दी ही सो गए।
चौथा दिन....
सुबह आराम से ऊठे, फ्रैश होकर नाश्ता किया ओर निकल पडे, रानीखेत के गोल्फकोर्स की तरफ, रास्ते में हमे एक बॉल पडी मिल गई, जिससे हम कैच कैच खेलने लगे, कुछ दूर पर थोडी भीड लगी देखी तो निकल लिए उधर की तरफ देखने की क्या माजरा है यह भीड क्यो लगी है। देखा तो अपना शाहिद कपूर बैठा था, विवाह फिल्म की सुटिंग हो रही थी, सुटिंग देखना बकवास लगता है एक ही सॉट कई बार करना पडता है, बिल्कुल बकवास लगता है। फिर शाहिद कपूर व अन्य स्टाफ के लोग भी बॉल से खेलने लगे। लेकिन अपनी से क्योकी यह एक गाने की सुटिंग थी।
हम वापिस आ गए ओर कुछ देर घुम-फिर कर हम वहां से चल पडे ओर चौबटिया गार्डन की तरफ। यहां पर सेब के बाग भी थे। कुछ दूर जाते है एक पार्क मे घुस गए, वहा पर कुछ गाईड पिछे पड गए की जंगल की सैर कराएगे, एक सौ रूपयो मे मान गया ओर पंगडंडी से अलग नीचे उतर गया जंगल में हम उसके पिछे-पिछे चलते रहे। पता नही कहां कहां ले गया वो हमे कभी पेडो के बीच तो कभी झाडियो से निकल रहे थे, पैर के नीचे पत्तियो की कुचलने की आवाज आ रही थी, जो अलग ही डर के हालात पैदा कर रहे थे। बाकी सब हमे(मुझे ओर गौरव)कह रहे थे की तुम ही लाए इस जंगल मे,चलो अब ऊपर चलो।   हमारा गाइड चलते चलते एक जगह रूक गया  ओर सबको शांत रहने के लिए कहने लगा, अब सबकी हवा संट हो गई, की पता नही यहां कौन सा जानवर आ गया। वह किसी जानवर की आवाज निकालने लगा, फिर कुछ गोबर पडा था कहने लगा की जंगली सुअर  का ताजा गोबर है, गौरव ने गौबर हाथ से छुआ तो वह कडक था मतलब पुराना, हम दोनो एक साथ बोले की उल्लू मत बना। फिर वो हमे कुछ ओर आगे ले गया यहां पर पेड बहुत थे जिसके कारण दोपहर मे भी अंधेरा सा था, वहा पर पानी की आवाज आ रही थी वह हमे उधर ले जाने लगा, शायद भालू पुल (beer bridge) की तरफ। तभी ऊपर से कही शोर आ रहा था की तेंदुआ तेंदुआ। बस फिर क्या था हमारे गाईड से लेकर जो भाई लोग पिछे पिछे चल रहे थे डर के मारे भाग लिए ओर ऊपर पहुच गए, मै ओर गौरव आराम से आए, ऊपर आकर अन्य गाइड से पता चला की हमारे गाईड साहब पहली बार ही जंगल मे नीचे गए है। वो भी इसलिए की आप लोग ज्यादा संख्या में जो थे। गाइड को पैसे देकर हम वहा से चल पडे। यहां पर मैने बिच्छू घास को पकड लिया ओर जिसकी जलन अगले दिन ठीक हुई।
रास्ते में खाना भी खाया फिर अब शाम को रानीखेत के होटल पहुंचे, रात को खाना खाकर जल्दी ही सो गए।
पांचवा व अंतिम दिन...
सुबह जल्दी उठकर व नहाधौकर सात बजे के करीब हम लोग चल पडे। हम लोग नैनिताल की तरफ ना जाकर, रानीखेत से एक रास्ता जंगल से होता हुआ जिम कॉर्बेट पार्क की तरफ चला जाता है, बस हम लोग रास्ते मे एक मन्दिर के पास रूके, मन्दिर मे दर्शन करने के बाद वही चाय की दुकान पर चाय व पकौडी का नाश्ता किया, ओर चल पडे। यह रास्ता बहुत सुंदर था, बीच बीच में एक नदी शायद कोसी नदी थी वह भी दिखती रहती साथ में हिरण व ओर अन्य जंगली जानवर भी दिखते रहते। इस रस्ते पर ट्रैफिक बिल्कुल नही था, कुछ छोटे गांव भी मिल जाते थे। लगभग 11 बजे के आसपास हम लोग जिम कार्बेट पार्क के ढिकाला गेट पर पहुँचे । जहां हमने प्रति व्यक्ति की पर्ची कटवाई ओर अपनी गाडी को जंगल में घुसा दिया। क्योकी हमारी गाडी बडी थी इसलिए इसे अंदर जाने दिया नही तो बाहर से जीप किराए पर करनी पडती। जिम कार्बेट पार्क में अंदर जाकर हम एक कैंटीन पर रूके वहा पर चिप्स व कोलड्रिंक ही मिली, वहा पर एक नन्हा हिरण का बच्चा था, कैंटिन वाले ने बताया की यह बच्चा जंगल से बाहर निकल कर यहां आ गया, तब से यह यही रहता है। हम लोग एक छोटी सी जल धारा को पार कर के घने जंगल मे चले गए। यहां पर गर्मी बहुत लग रही थी हमारा बहुत बुरा हाल हो रहा था, हम एक जगह पेड की छांव मे गाडी लगा कर वही बैठे रहे ओर इधर उधर देखते रहे पर बाघ नही दिखा, हिरण व बंदर ओर सियार ही दिख रहे थे बस। फिर हम वहा से चल पडे आगे जाकर एक सुखी नदी मिली ड्राईवर में उसमे गाडी उतारने को मना कर दिया, हमारी उससे बहस हो गई। राजू भाई ( मामा के लडके) ने ड्राइवर को पिछे भेज दिया ओर खुद गाडी चलाने लगे। गाडी उस सुखी नदी मे उतार दी, पास मे ही लम्बी लम्बी भूरे रंग की झाडिया थी, वही पर गाडी खडी कर दी, लगभग आधा घंटे हम लोग वही बैठे रहे पर हमे बाघ ना दिखाई दिया। गाडी के तकरीबन पंद्रह बीस फुट दूर से झाडी पर लाल रंग के बेर लगे थे, जिन्हे देखकर मै ओर गौरव गाडी से नीचे उतर गए, खुब सारे बेर तोडे हमने जबकी सब हमे कह रहे थे की नही नीचे मत उतरो यहां पर खतरा हो सकता है, पर वह उम्र ही कुछ ओर होती है, भला हम क्यो किसी की मानने लगे। हम बेर तोड ही रहे थे की झाडियो से खडखड की बहुत तेज आवाज आने लगी, जैसे कोई आ रहा हो हम भाग कर गाडी मे बैठ गए। थोडी देर में वहा से दो नेवले निकले, जबकी हम बाघ समझ रहे थे। अब हम वापिस चल पडे। ओर जिम कार्बेट पार्क से बाहर आ गए। रामनगर आकर कुछ हल्का पुल्का खाया ओर घर की तरफ चल पडे। रात को घर पहुचे.


यह यात्रा मुझे हमेशा याद रहेगी, यह मेरे दिल के बहुत करीब है, इस यात्रा की कोई फोटो नही है, जिसका दुख होता है, काश हम कैमरा ले जाते ।