अभी कुछ दिन पहले मुझे अग्रसेन की बावली जाने का अवसर मिला। हम कुछ दोस्त दिल्ली के कनॉट पैलेस स्तिथ सेन्ट्रल पार्क में जमा हुए थे। कुछ देर बातचीत का माहौल बना रहा। फिर मीटिंग खत्म होने पर हम कुछ ने निर्णय किया कि चलो आज अग्रसेन की बावली ही देख आये। वैसे तो राजीव चौक मेट्रो स्टेशन यहाँ कहे की कनॉट पैलेस कई बार आना हुआ। लकिन अग्रसेन की बावली देखना नहीं हो पाया। वैसे मुझे इस जगह के बारे में बहुत दिन से पता था लकिन फिर भी यहाँ जाना ना हो पाया।
चलो देर आये दुरुस्त आये यही कहावत सही बैठती है मुझ पर क्योकि आये भी तो पूरा लश्कर लेकर। हम कुछ दोस्त एक साथ यहाँ जो आये थे। इसमें रमता जोगी(बीनू), अमित तिवारी, ऋषभ , डॉ प्रदीप त्यागी जी और कमल कुमार सिंह(नारद जी) थे। हम सभी ने कुछ समय यही पर बिताया।वैसे जबसे pk मूवी(आमिर खान) में इस बावली को दिखाया है तब से यह और भी ज्यादा लोकप्रिय हुई है, नहीं तो दिल्ली के अधिकांश लोग इसको जानते भी नहीं थे।
अग्रसेन की बावली के बारे माना गया है कि इसको महाभारत काल में राजा अग्रसेन ने बनवाया था। और बाद में उनके ही वंशजो ने 13 वी या 14 वी शताब्दी में फिर से जीर्णोद्वार करवाया था। इस बावली में नीचे तल(कुएँ) तक जाने के लिए 103 सीढियां बनाई गयी है, यह लाल व भूरे बलुआ पत्थरो से निर्मित है। यह तक़रीबन 15 मीटर चौड़ी व 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ही गहरी है। वैसे अब इसमें पानी नहीं है, अब कुआँ भी सूखा हुआ था। यह तीन मंजिल ऊँची है। अगर वास्तुकला की नज़र से देखा जाये तो यह एक बेहद शानदार व खूबसूरत ईमारत है। वैसे यह दिल्ली की सबसे भूतिया जगहो में भी शुमार है, कहते है कि इसका पानी अपनी और आकर्षित करता था, जिसकी वजह से लोग इसमें उतर जाते थे और फिर मौत हो जाती थी। पता नहीं यह बात सच है या झूठी लकिन वही एक गाइड यही बता रहे थे। लेकिन अब यहाँ पानी नहीं है आप आराम से यहाँ आ सकते है। नीचे कुए में चमगादड़ो के मल की बहुत बदबु आती है, ऊपर छत पर असंख्य चमगादड़ चिपकी हुई थी।
अग्रसेन की बावड़ी में एक मस्जिद भी बनी है जो शायद मुगलो या शेरशाह सूरी या किसी और अन्य मुस्लिम राजा के शासन में बनी होगी।
अग्रसेन की बावड़ी(बावली) के सबसे नजदीक मेट्रो स्टेशन बाराखंबा मेट्रो स्टेशन है और राजीव चौक( कनॉट प्लेस) से तक़रीबन एक किलोमीटर दूर है। यह बावली हैली रोड पर हैली लेन पर स्तिथ है। जंतर मंतर से भी सीधा रास्ता आता है यहाँ तक। टॉलस्टाय रोड से सीधे हाथ पर मुड़ने पर भी यहाँ तक पंहुचा जा सकता है।
बहुत बढ़िया लेख,साथ ही महाभारत कालीन होना आश्चर्यचकित कर देता है,मेहराबो और दरवाजो से इस्लामिक स्थापत्य की झलक दिख रही है,
जवाब देंहटाएंसूरज मिश्रा,भदोही
धन्यवाद सूरज जी।
हटाएंआपने सही अनुमान लगाया है, चूंकि दिल्ली कई साल मुस्लिम शासकों के आधीन रही है तो कुछ ना कुछ उनकी छाप हर पुरानी हर चीज़ पर जरूरः मिलगी।
सचिन भाई,अग्रसेन नही ये उग्रसेन की बावली है । महाभारत में राजा उग्रसेन के नाम की साम्यता के कारण ही इसे महाभारतकालीन कहते है । जबकि उस काल में इस तरह की स्थापत्य कला नही थी । संभवतः मध्यकाल में किसी अन्य उग्रसेन ने बनवाई हो । इस बावली में हम भी आपसे मिलने ठीक एक दिन पहले गए थे
जवाब देंहटाएंमुकेश जी धन्यवाद।
हटाएंआप बिलकुल सही कह रहे है,लकिन उग्रसेन की बावली का दूसरा अपभ्रंश नाम अग्रसेन की बावली है। यह दोनों नाम से ही जानी जाती है।
छोठा है लेकिन बढ़िया लेख। :)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बीनू भाई।
हटाएंबढ़िया पोस्ट और फोटो त्यागी जी....
जवाब देंहटाएंजरूर देखेंगे जब भी अवसर मिला ....
धन्यवाद रितेश जी।
हटाएंआपका स्वागत है।
बहुत बढ़िया सचिन जी मैंने बीनू भाई की पोस्ट देर से देखी नहीं तो मैं भी इस पल का साक्षी होता।
जवाब देंहटाएंहितेश
जय श्री राम हितेश जी।
हटाएंआप ब्लॉग पर आये आपका आभार।
मैं जब गया था तो मुझे बहुत ज्यादा नहीं मालुम था इसके रास्ते के बारे में इसलिए मुझे बहुत पैदल चलना पड़ा ! लेकिन ये कहूंगा कि दिल्ली में ये जगह इतनी पॉपुलर नही है जितनी बाहर के लोगों को attract करती है ! बढ़िया लिखा सचिन भाई ! रमता जोगी को कुछ मिला उस कुँए में ?
जवाब देंहटाएंयोगी भाई कुआँ सूखा ही मिला।
हटाएंभाई आस पास ऊँची ऊँची इमारतों की वजह से इस बावली का पता ही नहीं चलता। बाकि ये स्कूल ,कॉलेज वालो के ठिकाने बन कर रह गए है।
शानदार पोस्ट …. sundar prastuti … Thanks for sharing this!! �� ��
जवाब देंहटाएंThanks and welcome hindindia
हटाएंDelhi ki khub badhiya ghumayi chal rahi hai ...
जवाब देंहटाएंजी हर्षिता जी। थैंक्स
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